रमेश चंद्र

लखनऊ और उसकी शाम अपनी तहज़ीब,नज़ाकत व नफ़ासत के लिए जाने जाते हैं। सुबह चाहे जैसी हो, दिन चाहे जैसे गुज़रे लेकिन शाम का रूमानी हो जाना लाज़मी है। ख़ैर, उस शाम की तो बात ही निराली थी। राष्ट्रीय ललित कला केंद्र अलीगंज की आर्ट गैलरी के पीछे पसीने से सराबोर प्रेम पत्थरों पर लगातार हथौड़े चलाए जा रहा था। पिछले दो पखवारे से दिन-रात मेहनत का नतीज़ा था कि अनगढ़ पत्थरों से निकल मोज़स्मा अब मुस्कराने लगी थी। झील-सी उकेरी गहरी आँखों में शर्मो हया की लहरें रह-रह कर उठने लगी थीं। कमान-सी तनी भौहें लरजती नदी की भँवरों-सी लग रही थीं। बिंदास बैठे होंठ बोलने को बेकरार हुए जा रहे थे। प्रेम के हाथों में गज़ब का हुनर था। दांए से देखो तो मूरत मायूस दिखती थी। बाएं बैठ जाओ तो खुशगवार नज़र आती थी और सामने खड़े हो जाओ तो लगता, जैसे अभी बोल पड़ेगी। देखने के लिए कला संकाय के विद्यार्थियों का हुजूम लगा रहता। सब भूरी-भूरी प्रशंसा करते। हालांकि मोज़स्मा अभी पूरी तरह तराशी नहीं गई थी। बारीकी के काम बाक़ी थे। बावज़ूद सब अभी से क़यास लगाने लगे थे कि प्रेम परीक्षा में औवल आएगा। मां-बाबू के सपने और अपने अरमानों को पंख देकर परवाज़ करने की मुफ़ीद जगह मिल गई थी। सो, लगातार लगा रहा। आज जब भीड़ छंट गई तो उसने भर नज़र मोजसमे को निहारा। फिर एक लंबी सांस ली और उठना चाहा। तभी दो क़दमों की धमक सुनाई दी। पलटकर देखा, ये सम्पा थी। फाइन आर्ट एंड क्राफ्ट की तेजतर्रार युवती। नेहायत ही शरीफ़ व संस्कारी। लेकिन आज उसका अंदाज़ बदला हुआ था। प्रायः सामान्य लिवास में रहने वाली सम्पा आज ख़ास लखनवी सफ़ेद चिकन की कुर्ती में कहर बरपा रही थी। मेल खाते दुपट्टे में सौंदर्य निखर आया था। आयी और देर तक मोजसमे को निहारती रही। फिर मूरत के क़रीब खड़ी हो गई। सम्पा का यह अंदाज़ दिल को छू गया। प्रेम देखा तो देखता ही रह गया। हालांकि सम्पा यहाँ अक़्सर आया करती थी लेकिन आज का अंदाज़ तो कुछ और ही था ! प्रेम की नजरें हटने का नाम न ले रही थीं। तभी सम्पा बोल पड़ी- ऐसे टक-टकी लगा क्या ताक रहे हो ? मैं तो तेरी मूरत की मुद्रा में ढलने की कोशिश कर रही हूँ। अब प्रेम बोला- इस अंदाज़े क़यामत को देखकर तो मूरत भी सरमा जाए। आप क्या किसी की नक़ल करेंगी ? उस मोज़स्मा और उसे गढ़ने वाले संगतराश का सौभाग्य होगा जो आपकी तनिक छाया भी अपने कैनवास पर उतार सके। सुनकर सम्पा खिलखिलाकर हंसी और बोली- प्रेम, मेरी छाया क्या कैनवास पर उतारोगे, मैं तेरे सामने खड़ी हूँ, मुझे ही तराशो न ! फिर वह छुई-मुई सी भाग खड़ी हुई। प्रेम उसे जाते देखता रहा। फिर आँखें बंद कर ली। लगा, जैसे झील के ठहरे हुए पानी में किसी शरारती बच्चे ने अनायास कंकड़ फेंक दिया हो। जैसे, सितार के सारे तार एक साथ झंकृत हो गए हों। जब आँखें खोली तो सम्पा ओझल हो चुकी थी लेकिन आर्ट गैलरी से गुज़रते उसके क़दमों की आहट ढेर देर तक आती रही..!

समय पंख लगाकर उड़ चला। प्रेम मशहूर मूर्तिकार बना। देश के कोने-कोने में उसकी अनूठी कलाकृतियाँ लगीं। पत्र-पत्रिकाओं में अक़्सर उसकी कला सुर्खियां बटोर लेतीं। मां-बाबू की रजामंदी से पायल जैसी खूबसूरत जीवन-संगिनी मिली। शादी के बाद दोनों दार्जिलिंग घूमने गए। कुदरत की खूबसूरत वादियों में पखवारे भर रहे और लखनऊ होते हुए लौटे। पायल की ज़िद पर प्रेम उसे ललित कला केंद्र घुमाने ले गया। दोनों अलीगंज के गेस्ट हाउस में ठहरे। प्रेम जैसे ख्यातिप्राप्त मूर्तिकार का आना अब बड़ी बात थी। ख़बर कानोंकान पूरे कैम्पस में फैल गई। मिलने वाले सीनियर-जूनियर का तांता लग गया। प्रिंसिपल के विशेष अनुरोध पर शाम को सभा-भवन में कार्यक्रम रखा गया। समय से पहले ही हॉल खचाखच भर गया। सभी प्रेम को सुनना चाहते थे। उसके लिए भी यह अनूठा अनुभव था। पायल पति को मिल रही प्रतिष्ठा पर न्योछावर हुए जा रही थी। ख़ैर, निर्धारित समय पर कार्यक्रम शुरू हुआ।

पहले प्रिंसिपल सर ने छात्र-छात्राओं को संबोधित किया और प्रेम के छात्र-जीवन की उपलब्धियों पर प्रकाश डाला। फिर कार्यक्रम-संचालन के लिए फाइन आर्ट एंड क्राफ्ट फेकल्टी का नाम पुकारा। प्रेम को यह सुनकर सुखद आश्चर्य हुआ कि संचालन करने आ रही महिला कोई और नहीं बल्कि सम्पा ही थी। और सचमुच सम्पा ने शमां बांध दिया। प्रेम की मेहनत को ऊँचा मक़ाम देते हुए ख़ूब नवाज़ा। संचालन के क्रम में जब मुस्करा कर देखती तो प्रेम पर अज़ीब कैफ़ियत तारी हो जाती। प्रेम ने गौर किया, सम्पा की आँखों के नीचे झुर्रियां पड़ गई थीं। काली नागन-से लहराते बाल कहीं-कहीं सफ़ेद पड़ गए थे। कार्यक्रम चलता रहा और सभी सम्मोहित-से सुनते रहे। प्रेम ही नहीं पायल को भी ख़ूब नवाज़ा गया। कार्यक्रम समाप्त हुआ तो रात्रि के नौ बज रहे थे। पायल जहाँ पति की उपलब्धियों पर गर्व कर रही थी वहीं प्रेम को यह जानकर सदमा-सा लगा कि सम्पा ने अब तक शादी ही न की। ढेरों जूनियर्स गेस्ट हाउस तक छोड़ने आए।
दरभंगा जाने वाली ट्रेन थोड़ी देर में खुलने वाली थी। प्रेम ने भर नज़र स्टेशन को निहारा। फिर दोनों बर्थ पर जाकर बैठ गए। तभी सम्पा आई और पायल को फूलों का गुलदस्ता भेंट करती बोली- भाभी, लखनऊ फिर आइएगा। आप भाग्यशाली हैं जो प्रेम जैसे पति को पाया। दुनिया प्रेम को आले दर्ज़े का संगतराश कहती है। अनगढ़ पत्थरों से मोजसमे निकाल उसे तराशने की कला इन्हें ख़ूब आती है। भगवान इनकी कला में दिन दूनी रात चौगुनी तरक्क़ी दें। हमलोग तो सिर्फ़ ये सोच कर ही जुड़ा जाते हैं कि कभी इनके साथ पढ़े भी थे। लेकिन कुछ चूक हो गई।कुछ अनगढ़ पत्थरों को बिना गढ़े ही चले गए, शायद उनसे भी कोई मूरत निकल आती ! उसे तो तराशना ही भूल गए ! ख़ैर, यह ज़िंदगी ही ऐसी है भाभी। यहाँ ऐसी भूल-चूक होते रहती है..! पायल ने पति को देखा। प्रेम आँखें बंद कर लिए थे। शायद सम्पा को देखने की हिम्मत न रही। उधर ट्रेन ने खिसकना शुरू किया। प्लेटफार्म छूटने लगा। फिर उसने रफ़्तार पकड़ लिए। पायल ने देखा, सम्पा अभी भी हाथ हिलाए जा रही थी..!

लेखक बिहार सरकार के शिक्षा
विभाग में सहायक निदेशक हैं.

                                                                             

By RK

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *