लेखक: khabar17.com | विशेष रिपोर्ट
काठमांडू, नेपाल:
नेपाल की सड़कों पर एक बार फिर बदलाव की मांग गूंज रही है। “राजा वापस लाओ”, “नेपाल को हिंदू राष्ट्र बनाओ” जैसे नारों के साथ हजारों लोग राजधानी काठमांडू में प्रदर्शन कर रहे हैं। यह आंदोलन देश के उस वर्ग की आवाज़ है जो लोकतंत्र के 16 साल बाद भी राजशाही और धार्मिक पहचान की वापसी चाहता है।
क्या है आंदोलन की मांग?
प्रदर्शनकारियों की मुख्य मांगें दो हैं:
- संवैधानिक राजशाही की बहाली
- नेपाल को फिर से हिंदू राष्ट्र घोषित किया जाए
वर्तमान में नेपाल एक धर्मनिरपेक्ष गणराज्य है, लेकिन कई नागरिक मानते हैं कि 2008 में जब राजशाही समाप्त हुई और धर्मनिरपेक्षता लागू की गई, तब से देश में सामाजिक असंतुलन और राजनीतिक अस्थिरता बढ़ी है।
नेतृत्व में कौन?
इस आंदोलन की अगुवाई कुछ राजशाही समर्थक संगठनों और धार्मिक समूहों द्वारा की जा रही है। खास बात यह है कि आंदोलन के आगे आ रहे कुछ नेता पूर्व में विवादित गतिविधियों से जुड़े रहे हैं, जिनमें से एक पर हथियारों की तस्करी और गैरकानूनी फंडिंग का आरोप भी लग चुका है। इसके बावजूद, बड़ी संख्या में लोग उनके पीछे खड़े हैं – यह संकेत देता है कि आंदोलन केवल एक नेता पर नहीं, बल्कि एक व्यापक जनभावना पर आधारित है।
जनता की भावना या सियासी चाल?
कुछ विश्लेषकों का मानना है कि यह आंदोलन जनता की वास्तविक पीड़ा का नतीजा है – बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार और अस्थिर सरकारों से तंग आ चुके लोगों को अब पुराने राजशाही मॉडल में स्थिरता नजर आती है। वहीं कुछ विशेषज्ञ इसे राजनीतिक असंतोष को भुनाने की कोशिश भी मानते हैं।
सरकार की प्रतिक्रिया क्या रही?
सरकार ने आंदोलनकारियों से शांति बनाए रखने की अपील की है, लेकिन जगह-जगह पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच झड़पें भी देखने को मिली हैं। फिलहाल, कोई बड़ा सरकारी बयान सामने नहीं आया है जिससे यह अंदाजा लगाया जा सके कि राजशाही की बहाली पर कोई विचार हो रहा है।
क्या नेपाल फिर बदलेगा?
नेपाल के वर्तमान हालात यह संकेत जरूर दे रहे हैं कि वहां लोकतंत्र पर आम जनता का भरोसा डगमगाने लगा है। सवाल यह नहीं है कि राजा लौटेंगे या नहीं, बल्कि यह है कि क्या मौजूदा व्यवस्था आम जनता को वह स्थिरता और पहचान दे पा रही है जिसकी उन्हें तलाश है?
नेपाल की राजशाही: एक साम्राज्य की शुरुआत से लोकतंत्र तक की कहानी
नेपाल, जो आज एक संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य है, कभी एक शक्तिशाली राजशाही हुआ करता था। पहाड़ों में बसे इस सुंदर देश की राजनीति ने सदियों तक राजाओं के इर्द-गिर्द आकार लिया। लेकिन एक समय ऐसा आया जब वही राजशाही, जो कभी राष्ट्र की पहचान थी, जनता के असंतोष और बदलाव की मांग में ढह गई।
आइए जानते हैं नेपाल की राजशाही का सफर — उसके शिखर से लेकर अंतिम सांस तक।
गोरखा से काठमांडू: राजशाही की नींव
नेपाल में आधुनिक राजशाही की शुरुआत 18वीं शताब्दी में प्रिथ्वी नारायण शाह से हुई, जो गोरखा राज्य के राजा थे। उन्होंने विभिन्न छोटे-छोटे राज्यों को एक कर के नेपाल को एकीकृत किया और 1768 में काठमांडू पर विजय प्राप्त की।
प्रिथ्वी नारायण शाह को आधुनिक नेपाल का निर्माता माना जाता है।
उनका नारा था — “नेपाल एक फूलों की माला है जिसमें सभी धर्म और जातियाँ जुड़ी हैं।”
शाही शासन का विस्तार और राणा वंश का अधिपत्य
राजशाही आगे बढ़ती रही, लेकिन 1846 में एक बड़ा मोड़ आया जब जंग बहादुर राणा ने कोत हत्याकांड के बाद सत्ता हथिया ली और राणा वंश का शासन शुरू हुआ। राणा शासक राजा को केवल एक प्रतीक बनाकर खुद शासन चलाते रहे। इस दौर में नेपाल दुनिया से अलग-थलग रहा।
यह स्थिति 104 वर्षों तक चली (1846-1951), जब तक कि 1951 में राजा त्रिभुवन ने जनता और भारत के सहयोग से राणा शासन को खत्म किया और सत्ता वापस राजशाही को मिली।
संवैधानिक राजशाही का दौर (1951–1990)
1951 में राजशाही को फिर से शक्ति मिली और नेपाल में लोकतंत्र की हल्की शुरुआत हुई। हालांकि राजा ही सर्वोच्च थे, लेकिन सरकार का संचालन मंत्रिमंडल के ज़रिए किया जाने लगा। लेकिन राजनीतिक अस्थिरता बनी रही और कई सरकारें आती-जाती रहीं।
पंचायती व्यवस्था और पूर्ण राजतंत्र
1960 में राजा महेंद्र ने लोकतांत्रिक सरकार को भंग कर एक “पंचायती व्यवस्था” लागू की, जिसमें बहुदलीय राजनीति पर रोक लगा दी गई और पूरा नियंत्रण राजा के हाथ में आ गया।
उनके पुत्र राजा बीरेन्द्र ने इसे जारी रखा और 1990 तक नेपाल एक एकदलीय राजशाही बनकर रह गया।
1990: लोकतंत्र की वापसी
1990 में जनता के ज़ोरदार आंदोलनों और भारत के समर्थन से नेपाल में लोकतंत्र की वापसी हुई। राजा बीरेन्द्र ने संविधान में संशोधन कर के देश को संवैधानिक राजतंत्र बना दिया और बहुदलीय लोकतंत्र को स्वीकार किया।
काठमांडू, नेपाल: 20 अप्रैल 2000

नेपाल के क्राउन प्रिंस दीपेंद्र काठमांडू के नारायण हिती रॉयल पैलेस में पदक वितरण कार्यक्रम के दौरान दिखाई दे रहे हैं। क्राउन प्रिंस को नेपाल का नया राजा घोषित किया गया है, हालांकि वे अपने माता-पिता, राजा बीरेंद्र और रानी ऐश्वर्या सहित शाही परिवार के 12 सदस्यों की हत्या करने और फिर खुद पर बंदूक तानने के बाद कोमा में हैं। शाही परिवार के नरसंहार में राजकुमार निरजन और राजकुमारी श्रुति की भी हत्या कर दी गई थी।
2001: वह काली रात जिसने सब बदल दिया
1 जून 2001 की रात को नारायणहीती राजमहल में एक ऐसी घटना हुई जिसने पूरी दुनिया को चौंका दिया। शाही परिवार के कई सदस्य, जिनमें राजा बीरेन्द्र, रानी ऐश्वर्या और अन्य शाही सदस्य शामिल थे, महल के अंदर गोली चलने से मारे गए।
आरोप था कि राजकुमार दीपेन्द्र ने खुद ही अपने परिवार की हत्या कर दी और बाद में खुद को गोली मार ली।
हालांकि सच्चाई आज भी रहस्य बनी हुई है।

ग्यानेंद्र की ताजपोशी और जनता का असंतोष
बीरेन्द्र की मृत्यु के बाद उनके भाई ग्यानेंद्र शाह राजा बने। लेकिन जनता का भरोसा उन पर कभी नहीं बना। उन्होंने 2005 में सत्ता पूरी तरह अपने हाथ में लेकर लोकतांत्रिक सरकार को भंग कर दिया, जिससे जन-आंदोलन फिर भड़क उठा।

2006: जनआंदोलन और राजशाही का अंत
2006 में नेपाल में ऐतिहासिक जनआंदोलन हुआ जिसे जन आंदोलन-2 कहा जाता है। इसमें सभी प्रमुख दलों और माओवादी संगठनों ने मिलकर राजशाही के खिलाफ प्रदर्शन किया। लाखों लोग सड़कों पर उतर आए और अंततः ग्यानेंद्र शाह को सत्ता छोड़नी पड़ी।

2008: नेपाल बना गणराज्य
28 मई 2008 को नेपाल की संविधान सभा ने राजशाही को औपचारिक रूप से समाप्त कर दिया और देश को एक संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया।
ग्यानेंद्र शाह को नारायणहीती महल खाली करना पड़ा और वह एक आम नागरिक बन गए।
निष्कर्ष: क्या फिर लौटेगी राजशाही?
हाल के वर्षों में नेपाल में फिर से राजशाही और हिंदू राष्ट्र की मांग उठ रही है। कुछ लोग मानते हैं कि राजशाही के दौर में देश में अधिक स्थिरता और सांस्कृतिक पहचान थी। लेकिन बहुसंख्यक जनता अब भी लोकतंत्र की राह पर विश्वास रखती है।
नेपाल की राजशाही अब इतिहास बन चुकी है — एक ऐसा इतिहास, जो कभी गौरवशाली था, लेकिन अंत में जनता की ताकत के आगे झुक गया।



नेपाल में राजशाही शासन का इतिहास एक लंबी, रोचक और जटिल गाथा है, जो सैकड़ों वर्षों तक चली। यह कहानी छोटे-छोटे रजवाड़ों के एकीकरण से शुरू होती है और आधुनिक लोकतांत्रिक गणराज्य के उदय तक पहुंचती है। यहाँ मैं नेपाल के राजशाही शासन के उभार से लेकर उसके पतन तक की पूरी कहानी को अपने शब्दों में, विस्तार से और मौलिक रूप से प्रस्तुत कर रहा हूँ।
नेपाल का निर्माण और राजशाही का उभार
नेपाल का आधुनिक स्वरूप 18वीं सदी में अस्तित्व में आया, लेकिन इसकी जड़ें प्राचीन काल तक जाती हैं। प्राचीन समय में, आज के नेपाल के क्षेत्र में कई छोटे-छोटे राज्य और कबीले थे। किरात, लिच्छवि, मल्ल जैसे वंशों ने अलग-अलग समय पर इस क्षेत्र पर शासन किया। ये राज्य मुख्य रूप से काठमांडू घाटी और आसपास के इलाकों तक सीमित थे। लिच्छवि काल (लगभग 400-750 ईस्वी) को नेपाल का स्वर्ण युग माना जाता है, जब कला, संस्कृति और व्यापार फला-फूला। इसके बाद मल्ल वंश (12वीं से 18वीं सदी) ने काठमांडू, भक्तपुर और पाटन जैसे शहरों को समृद्ध बनाया, लेकिन ये राज्य आपस में बंटे हुए थे और एकजुट राष्ट्र की अवधारणा अभी दूर थी।नेपाल का असली एकीकरण तब शुरू हुआ जब गोरखा नामक छोटे पहाड़ी राज्य के शासक पृथ्वी नारायण शाह ने 18वीं सदी में अपनी महत्वाकांक्षा को मूर्त रूप दिया। पृथ्वी नारायण का जन्म 1723 में हुआ था, और वे गोरखा के शाह वंश से ताल्लुक रखते थे। उस समय नेपाल क्षेत्र में कई छोटे-छोटे राज्य थे, जिनमें मल्ल शासकों का काठमांडू घाटी पर कब्जा था। पृथ्वी नारायण ने इन राज्यों को एक करने का सपना देखा। उन्होंने अपनी सैन्य रणनीति और कूटनीति से 1744 में गोरखा की गद्दी संभाली और फिर धीरे-धीरे पड़ोसी राज्यों पर कब्जा करना शुरू किया।1768 में पृथ्वी नारायण शाह ने काठमांडू पर विजय प्राप्त की, जो उस समय एक शक्तिशाली और समृद्ध राज्य था। इसके बाद उन्होंने पाटन और भक्तपुर को भी अपने अधीन किया। इस तरह, 25 सितंबर 1768 को नेपाल के एकीकरण की नींव पड़ी, और पृथ्वी नारायण शाह को आधुनिक नेपाल का संस्थापक माना जाता है। उनके शासनकाल (1744-1775) में नेपाल एक शक्तिशाली राज्य के रूप में उभरा, और शाह वंश की राजशाही की शुरुआत हुई।
शाह वंश का प्रारंभिक शासन (1768-1846)पृथ्वी नारायण शाह के बाद उनके बेटे प्रताप सिंह शाह (1775-1777) और फिर उनके पोते राणा बहादुर शाह (1777-1799) ने गद्दी संभाली। इस दौरान नेपाल का विस्तार जारी रहा, लेकिन आंतरिक अस्थिरता भी बढ़ने लगी। राणा बहादुर का शासन विवादास्पद रहा। वे अपनी निजी जिंदगी और क्रूर फैसलों के लिए कुख्यात थे। 1799 में उन्होंने अपने बेटे गिर्वाण युद्ध विक्रम शाह (1799-1816) के पक्ष में गद्दी छोड़ दी, जो उस समय मात्र डेढ़ साल के थे। इस दौरान दरबार में सत्ता की साजिशें और गुटबाजी बढ़ती गई।19वीं सदी की शुरुआत में नेपाल का सामना ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी से हुआ। 1814-1816 के बीच हुए एंग्लो-नेपाल युद्ध (जिसे सुगौली युद्ध भी कहते हैं) में नेपाल को हार का सामना करना पड़ा। 1816 में सुगौली संधि के तहत नेपाल को अपनी बड़ी जमीनें—जो आज भारत के उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और सिक्किम का हिस्सा हैं—ब्रिटिश को सौंपनी पड़ीं। इस हार ने नेपाल की शक्ति को सीमित कर दिया, लेकिन शाह वंश का शासन बना रहा।इसके बाद के शासक, जैसे राजेंद्र विक्रम शाह (1816-1847), कमजोर और दरबारी साजिशों के शिकार रहे। इस दौरान असली सत्ता दरबारियों और सेना के हाथों में थी। शाह राजा नाममात्र के शासक बनकर रह गए।
राणा शासन का उदय और राजशाही का पतन (1846-1951)1846 में नेपाल के इतिहास में एक बड़ा बदलाव आया, जब जंग बहादुर कुँवर ने कोत पर्व नामक नरसंहार के जरिए सत्ता पर कब्जा कर लिया। जंग बहादुर ने खुद को राणा वंश का संस्थापक घोषित किया और नेपाल में राणा शासन की शुरुआत की। इस व्यवस्था में शाह राजा सिर्फ प्रतीक बनकर रह गए, जबकि असली सत्ता राणा प्रधानमंत्रियों के पास थी। जंग बहादुर (1846-1877) ने अपने शासन को मजबूत करने के लिए ब्रिटिश के साथ दोस्ताना संबंध बनाए और नेपाल को आधुनिक बनाने की कोशिश की, लेकिन यह शासन निरंकुश और जनविरोधी था।राणा शासन 1846 से 1951 तक चला, जिसमें जंग बहादुर के बाद उनके भाई-बेटों ने सत्ता संभाली। इस दौरान चंद्र शमशेर (1901-1929) और जुद्ध शमशेर (1932-1945) जैसे राणा शासकों ने देश पर शासन किया। राणाओं ने शाह राजाओं को नजरबंद रखा और जनता पर कठोर कर व नियम थोपे। हालाँकि, 20वीं सदी में लोकतंत्र की हवा नेपाल में भी पहुंची। 1940 के दशक में नेपाली कांग्रेस और अन्य समूहों ने राणा शासन के खिलाफ आंदोलन शुरू किया।1950 में राजा त्रिभुवन शाह ने भारत की मदद से राणा शासन को चुनौती दी। वे भारत भाग गए और वहाँ से लोकतांत्रिक आंदोलन को समर्थन दिया। 1951 में दिल्ली समझौते के बाद राणा शासन खत्म हुआ, और राजा त्रिभुवन सत्ता में लौटे। इस तरह शाह वंश की शक्ति फिर से बहाल हुई।
शाह वंश का पुनरुत्थान और पंचायत व्यवस्था (1951-1990)1951 के बाद त्रिभुवन (1911-1955) और उनके बेटे महेंद्र (1955-1972) ने शासन संभाला। 1959 में नेपाल में पहला संविधान बना और चुनाव हुए, जिसमें नेपाली कांग्रेस जीती। लेकिन 1960 में महेंद्र ने तख्तापलट कर संसद भंग कर दी और “पंचायत व्यवस्था” लागू की। यह एक निर्दलीय शासन था, जिसमें राजा सर्वोच्च था। महेंद्र ने इसे “नेपाल के अनुकूल लोकतंत्र” कहा, लेकिन यह निरंकुशता का दूसरा रूप था।महेंद्र के बाद उनके बेटे बीरेंद्र (1972-2001) ने गद्दी संभाली। बीरेंद्र शुरू में पंचायत व्यवस्था को जारी रखना चाहते थे, लेकिन 1990 में जन आंदोलन (पहला जन आंदोलन) ने उन्हें संवैधानिक राजशाही स्वीकार करने के लिए मजबूर किया। इसके बाद नेपाल में बहुदलीय लोकतंत्र की शुरुआत हुई।
शाही नरसंहार और राजशाही का अंत (2001-2008)
1 जून 2001 को नेपाल के इतिहास में एक दुखद घटना घटी। नारायणहिटी राजमहल में क्राउन प्रिंस दीपेंद्र ने अपने पिता राजा बीरेंद्र, माँ रानी ऐश्वर्या और परिवार के 9 सदस्यों की हत्या कर दी, फिर खुद को गोली मार ली। इस नरसंहार के पीछे पारिवारिक विवाद बताया गया। इसके बाद बीरेंद्र के भाई ज्ञानेंद्र (2001-2008) राजा बने।ज्ञानेंद्र का शासन शुरू से विवादों में रहा। 2005 में उन्होंने लोकतंत्र को निलंबित कर सारी सत्ता अपने हाथ में ले ली। इससे जनता में गुस्सा भड़क उठा। 2006 में दूसरा जन आंदोलन शुरू हुआ, जिसमें माओवादी और अन्य दल शामिल हुए। लाखों लोग सड़कों पर उतरे, और ज्ञानेंद्र को झुकना पड़ा। 2008 में संविधान सभा ने 28 मई को 240 साल पुरानी राजशाही को खत्म कर नेपाल को संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया। ज्ञानेंद्र को महल छोड़ना पड़ा, और वे एक आम नागरिक बन गए।
राजशाही के शासकों की सूची (संक्षिप्त)

निष्कर्ष
नेपाल की राजशाही का इतिहास पृथ्वी नारायण शाह के सपने से शुरू हुआ और ज्ञानेंद्र के पतन पर खत्म हुआ। यह 240 साल की यात्रा थी, जिसमें शक्ति, साजिश, युद्ध और जनता की ताकत शामिल थी। आज नेपाल एक गणराज्य है, लेकिन राजशाही की यादें और उसकी विरासत अभी भी लोगों के बीच जीवित हैं।