✍️ मुख्य लेख
बिहार की राजनीति में गठबंधन की गाड़ी इस बार कुछ ज्यादा ही धचकों से गुजर रही है। एक समय था जब राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और कांग्रेस का रिश्ता विपक्षी राजनीति की रीढ़ माना जाता था, लेकिन अब हालात ऐसे बनते जा रहे हैं कि दोनों दल एक-दूसरे की राहों में कांटे बिछाने लगे हैं।
कांग्रेस पार्टी, विशेषकर राहुल गांधी की अगुवाई में, लगातार ऐसे कदम उठा रही है जो राजद के लिए असहज हैं। लालू यादव, जिन्होंने कभी सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर खुलकर समर्थन दिया था, आज खुद राहुल गांधी की राजनीतिक शैली से परेशान दिखते हैं।
साल 2020 के बिहार विधानसभा चुनावों के बाद से ही कांग्रेस और राजद के बीच रिश्तों में दरारें बढ़ती गईं। राहुल गांधी द्वारा “दागी नेताओं वाले ऑर्डिनेंस” को फाड़ना हो या फिर कन्हैया कुमार का लालू-राबड़ी और नीतीश कुमार की सरकार पर एक साथ सवाल उठाना — इन घटनाओं ने राजद की नाराजगी को और गहरा कर दिया।
कन्हैया कुमार की बिहार यात्रा के दौरान जब लालू यादव ने तीखा बयान दिया, तो मामला इतना गरमा गया कि सोनिया गांधी को फोन करके स्थिति संभालनी पड़ी। लेकिन असली बदलाव तब शुरू हुआ जब कांग्रेस की कमान पूरी तरह से राहुल गांधी के हाथों में आ गई। इसके बाद गठबंधन की राजनीति में व्यक्तिगत और वैचारिक मतभेद ज्यादा स्पष्ट होने लगे।
हाल ही में तेजस्वी यादव ने दिल्ली जाकर राहुल गांधी और कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे से मुलाकात की। मुलाकात को ‘सकारात्मक‘ बताया गया, लेकिन इसके बाद भी जब कांग्रेस ने उन्हें महागठबंधन का मुख्यमंत्री चेहरा घोषित करने से परहेज किया, तो साफ हो गया कि गठबंधन की राह में अभी भी कई रुकावटें बाकी हैं।
क्या यह दरार चुनावी रणनीति का हिस्सा है या दो ध्रुवों में बंट चुकी विचारधाराओं की असहमति? इस सवाल का जवाब वक्त के साथ सामने आएगा, लेकिन फिलहाल इतना जरूर है कि बिहार में विपक्ष की एकता की तस्वीर पहले जैसी मजबूत नहीं रह गई है।