चंपई सोरेन की टिप्पणी ने मचाया सियासी हलचल
झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा नेता चंपई सोरेन ने हाल ही में एक ऐसा बयान दिया है जो राज्य की राजनीति में नई बहस को जन्म दे रहा है। बोकारो के बालीडीह स्थित जाहेरगढ़ में सरहुल/बाहा मिलन समारोह को संबोधित करते हुए उन्होंने स्पष्ट कहा कि जिन आदिवासियों ने दूसरा धर्म अपना लिया है या जिन्होंने अपने समुदाय से बाहर विवाह किया है, उन्हें आरक्षण की सुविधा से वंचित किया जाना चाहिए।
उनके इस बयान ने सामाजिक और राजनीतिक दोनों ही स्तरों पर चर्चाएं तेज कर दी हैं।

क्या कहा चंपई सोरेन ने?
चंपई सोरेन ने कहा कि अगर समय रहते इन मुद्दों पर सख्त कदम नहीं उठाए गए, तो आदिवासी संस्कृति और परंपरा पूरी तरह खत्म हो सकती है। उन्होंने चिंता जताई कि दूसरे धर्म को अपनाने वाले आदिवासी, जाहेरस्थान, सरना स्थल और देशावली जैसे धार्मिक स्थलों पर प्रार्थना करना छोड़ चुके हैं, जिससे समुदाय की आध्यात्मिक पहचान खतरे में पड़ गई है।
आरक्षण पर क्यों उठाया सवाल?
पूर्व मुख्यमंत्री का तर्क है कि आरक्षण की व्यवस्था आदिवासी संस्कृति, सामाजिक पिछड़ापन और पारंपरिक पहचान को ध्यान में रखते हुए बनाई गई थी। जब कोई व्यक्ति दूसरे धर्म में चला जाता है, तो वह न केवल अपनी धार्मिक पहचान बदलता है बल्कि कई बार अपने सामाजिक व्यवहार और परंपराओं से भी दूरी बना लेता है। ऐसे में चंपई सोरेन मानते हैं कि आरक्षण का लाभ उसी को मिलना चाहिए जो मूल आदिवासी पहचान को बनाए रखता है।
समाज से बाहर विवाह और बांग्लादेशी घुसपैठ का मुद्दा
चंपई सोरेन ने ये भी आरोप लगाया कि संथाल परगना क्षेत्र में आदिवासी महिलाओं की बाहरी व्यक्तियों से शादी और बांग्लादेशी घुसपैठ जैसे मुद्दे आदिवासी समाज की संरचना को कमजोर कर रहे हैं। उनके अनुसार कुछ बाहरी लोग आदिवासी महिलाओं से शादी कर, स्थानीय निकाय चुनाव में उन्हें उम्मीदवार बनाकर अप्रत्यक्ष रूप से आरक्षण व्यवस्था का दुरुपयोग कर रहे हैं।
मुद्दा सामाजिक संरचना और पहचान का है
यह केवल राजनीतिक बयान नहीं है, बल्कि यह आदिवासी समाज की अस्मिता और अस्तित्व से जुड़ा एक बड़ा मुद्दा है। चंपई सोरेन की चिंता यह है कि यदि धार्मिक परिवर्तन और बाहरी हस्तक्षेप इसी तरह जारी रहा, तो आने वाले वर्षों में आदिवासी संस्कृति केवल इतिहास बनकर रह जाएगी।
क्या कहता है संविधान?
भारत का संविधान धर्म की स्वतंत्रता देता है, लेकिन साथ ही यह भी कहता है कि अनुसूचित जनजातियों को मिलने वाले विशेषाधिकार उनके सांस्कृतिक और सामाजिक पिछड़ेपन को ध्यान में रखकर दिए गए हैं। इस विषय पर कानूनी व्याख्या और सरकार की नीति का क्या रुख होगा, यह देखना बाकी है।
निष्कर्ष
चंपई सोरेन की इस मांग ने निश्चित रूप से एक गहन बहस को जन्म दिया है – क्या धर्म परिवर्तन और समुदाय से बाहर विवाह करने के बाद भी कोई व्यक्ति आरक्षण का हकदार है? यह सवाल केवल झारखंड ही नहीं, बल्कि देशभर में आदिवासी समाज से जुड़े नीति-निर्माण को प्रभावित कर सकता है।