लेखक : रमेश चंद्र
आज आसमान साफ हुआ तो शहर की चहल-पहल बढ़ गई. चार दिन से चल रही सावन की पुरवाई और झमाझम बारिश ने सब कुछ बिगाड़ दिया था. ठप पड़ा जनजीवन जब सामान्य हुआ तो चौक-चौराहे व्यस्त हो गये. सब्जी लिये ठेले वाले आवाज लगाने लगे. अखबार बेचते हाॅकरों की चाल बदल गयी. रामदीन हलवाई की कई दिन से बोहनी न हुई थी. आज मौसम बदला तो मुस्कान भी लौट आयी. अब दुकान पर भीड़ दिखने लगी. महज तीन दिन बाद रक्षाबंधन का त्योहार था. सड़क किनारे सजी नाना प्रकार की रंग-बिरंगी राखियां आते-जाते लोगों को लुभाने लगी थीं. स्कूल जाती लड़कियों का झुंड राखी की दुकानों पर टूट पड़ा. इसी बीच चौराहे पर शोर हुआ. लोग उधर भागे. सामने अजीब-सा मंजर था. आठ-दस साल की एक लड़की चीखती-चिल्लाती बेतहाशा भागी जा रही थी. कुछ लोग उसका पीछा कर रहे थे. अचानक वह मुड़ी और ऑफिस जाते एक बाबू को पीछे से पकड़ रो-रो कर कहने लगी- 'मुझे बचा लो बाबू, मुझे बचा लो, वरना ये लोग मुझे जान से मार डालेंगे.' फिर उसने बाबू को कस कर पकड़ लिया. बाबू ने सरसरी निगाह लड़की को देखा. बिखरे बाल, फटे-पुराने कपड़े, एक मैली-सी पोटली, सचमुच वह पागल-सी दीख रही थी. तभी पीछा कर रहा आदमी डंडा लिये आ गया और लड़की को पकड़ना चाहा. लड़की बाबू से और चिपक गयी. बाबू ने रोका-'अरे भाई, क्यों इसके पीछे पड़े हो? क्या बिगाड़ा है इसने?' 'पूछते हो क्या बिगाड़ा है? अरे, सत्यानाश कर दिया इस चुड़ैल ने. आज छोडूंगा नहीं.' आदमी गुस्से में लड़की को पकड़ने के लिए लपका, लेकिन बाबू ने बचाव किया और फिर पूछा-'ऐ ठहरो, मत मारो इसे. पहले पूरी बात बताओ.' आदमी जरा-सा रुका, उखड़ी सांसों को संभालते हुए बोला-'मत पूछो साहब, इसने तो जीना हराम कर दिया है.' 'लेकिन हुआ क्या?' बाबू ने फिर सवाल किया. आदमी माथे का पसीना पोंछते हुए बोला-'साहब, हम ठहरे गरीब-गुरुबा आदमी. जलेबी बनाता हूं और ठेले पर घुमा-घुमा कर बेचता हूं. पता नहीं ये चुड़ैल अचानक कहां से आ गयी. ठेले पर रखी जलेबियों में मुंह लगाकर खाने लगी. फिर उसी में थूक दिया. बोलो साहब, ये ठीक किया इसने?' बाबू बगल में घूम कर लड़की से पूछे-'क्यों जी.' लड़की कुछ न बोली. घायल हिरनी-सी थर्र-थर्र कांपती रही. आदमी तीखे तेवर में फिर बोला-'साहब, ये एक दिन की बात नहीं है. चार दिन पहले सूरजमल कपड़े वाले की दुकान में कीचड़ फेंक दिया. आज रामू की दुकान से कई राखियां ले भागी. चौराहे के सारे दुकानदार परेशान हैं. ये म्यूनिसपिलटी वाले लावारिस जानवरों को तो पकड़ कर बंद कर देते हैं, लेकिन इसका कुछ क्यों नहीं करते. हमलोग पागल समझ बर्दाश्त कर लेते हैं... वरना.. आप हटो साहब, आज जान से मार डालूंगा.' आदमी ने लड़की को झपटा मार कर पकड़ने की कोशिश की, लेकिन बाबू ने फिर बचा लिया. लड़की को गौर से देखा. वह डर कर पीली पड़ गयी थी. बाबू को उस पर तरस आ गया. बोले, 'कितनी जलेबियों का नुकसान किया इसने.' 'किलो से ज़्यादा होगी. चालीस का चूना तो लगा ही गयी.' अब आदमी थोड़ा शांत हुआ.
चौराहे पर मजमा लग गया. सभी तमाशा देख रहे थे. बाबू ने पॉकेट से दस-दस के चार नोट निकाले और उस आदमी को देते हुए बोले-'लो, ये पैसे रख लो और छोड़ दो बेचारी को.' 'लेकिन साहब ये पैसे आप क्यों दे रहे हैं.' संकोचवश आदमी बोला. 'कहा न रख लो, अब जाओ.' आदमी झिझकते हुए पैसे लिया और पीछे हट गया. लड़की खुश होकर उछल पड़ी और झूमते हुए बोली-'तुम कितने अच्छे हो बाबू, तुम कितने अच्छे हो. मेरा भाई भी बहोत अच्छा है.' बाबू जाने को तैयार थे, लेकिन रुक गये. पूछा-
‘तुम्हारा भाई, कहां रहता है? लड़की जेहन पर जोर देकर बोली-'जी, ओ...ओ... लोग क्या बोलता है साहब, अरे हां, जहां लड़ाई होता है.' बाबू आश्चर्य से बोले-'लड़ाई! कैसी लड़ाई?' लड़की खुश होकर बोली-'हां, याद आया कारगिल... कारगिल... कारगिल...!' बाबू और आश्चर्य से पूछे-'कारगिल ... मतलब...' अब लड़की मुस्कुरायी-'बड़े अजीब आदमी हो साहब. शक्ल-सूरत से तो पढ़े-लिखे जान पड़ते हो, लेकिन इत्ता भी नहीं जानते, लड़ाई कहां होती है. पूरे मूरख हो तुम. अरे, वतन में जहां लड़ाई होती है उसे कारगिल कहते हैं. मेरा भाई वहीं रहता है. फौजी है ओ. हमसे मोटा, हमसे बड़ा. बंदूकें रखता है. अरे हां, याद आया,' फिर जल्दी-जल्दी पोटली से एक चिट्ठी निकाल बाबू को देती हुई बोली, 'लो साहब, इसे पढ़ो. बहोत दिन हुए मेरे भाई ने भेजी थी.' बाबू ने चिट्ठी ले ली और उसे पढ़ना शुरू किया.
द्रास सेक्टर
23 जून 1999
प्यारी बहन रेशमा,
”खुश रहो.
12 जून को लिखे तुम्हारे खत के लिए शुक्रिया. हम अपने अगले मकाम के लिए तैयारी कर रहे हैं. हमारी यूनिट पर न सिर्फ हमारे रेजीमेंट और मीडिया की नजरें हैं, बल्कि हिंदुस्तान की तमाम आवाम हमारे फतहयाबी का जश्न मनाने के लिए बेचैन है. हम अपने जीवन के सबसे बड़े रोमांचक दौर से गुजर रहे हैं. मेहरबानी करके हताहतों को लेकर चिंता न करना. हमारे जीवन में खतरा तो है ही, उस पर हमारा कोई अख्तियार नहीं. लड़ाई में जाना जीवनकाल में मिलने वाला एक सम्मान है और इसमें मैं पीछे नहीं हटूंगा. लड़ाई खत्म होते ही घर आऊंगा. आकर घर की दीवारें ठीक करनी है. बेकार की चिंता करके अपनी नींद हराम न करना. और हांं, पंडित दीनानाथ चाचू से महाभारत की कथा रोज सुनना.
तुम्हारा भाई मेजर असलम
चिट्ठी पढ़ कर बाबू विचलित-से हो गये. बोले-'क्या...क्या तुम मेजर असलम की सगी बहन हो? लेकिन असलम तो शहीद हो गये.'
लड़की मारे खुशी के उछल-उछल कर कहने लगी-‘हां… हां… मेरा भाई शहीद हो गया. यही बात तो मैं लोगों को समझाती हूं, लेकिन लोग हैं कि मानते नहीं. अब तुम ही बताओ साहब, पहले मेरा भाई फौज में सिपाही भर्ती हुआ. कुछ दिन बाद चिट्ठी आयी कि ओ हवलदार हो गया. फिर सूबेदार बना. पिछले रमजान में आया था तो बोला-‘रेशमा, अब मैं मेजर बन गया हूं.’ फिर मेजर के ऊपर का क्या होता है साहब… शहीद… शहीद.. अब मेरा भाई शहीद बन गया है. यही चिट्ठी तो आयी है. तनख्वाह तो बढ़ गये होंगे न साहब. तुम एक समझदार आदमी हो. बाकी सब मूरख हैं. जरूर दस जमात से ऊपर पढ़े होंगे.’ लड़की की बातें नश्तर-सी दिल-दिमाग को चीरती चली गयीं. बाबू ही नहीं, चौराहे पर खड़े तमाम लोग मर्माहत हो गये. कई एक तो सुबुक-सुबुक कर रोने भी लगे.
नीरव सन्नाटा पसर गया था. फिर लड़की अपनी पोटली से भाई की एक पुरानी वर्दी निकाली. पास पड़े खंभे पर जल्दी-जल्दी पहना एक मोजसमे का शक्ल देकर बोली-‘मेरे भाई को सलाम करो साहब. अरे हां, मैं तो भूल ही गयी. पॉकेट से कई राखियां निकाल बाबू को दिखाती हुई बोली-‘मेरे भाई के हाथ में कित्ता अच्छा लगेंगी. पंडित दीनानाथ चाचू की बेटी किरण कहती है कि बहन, अगर भाई के हाथ में राखी बांध दे तो… तो… ओ जल्दी आ जाता है. अबकी आये तो पूरी हाथ ही राखियां बांध दूं. अच्छा, अब सलाम करो साहब.’ बाबू ही नहीं, चौराहे पर खड़े सभी लोग सलामी में हाथ उठा दिये. लड़की गाने लगी-‘जन गण मन अधिनायक जय है… भारत भाग्य विधाता…’ इसी बीच पास स्टेशन से रेलगाड़ी के आने की आवाज आयी. लड़की भाई की वर्दी उठायी और स्टेशन की तरफ भागी. जाते-जाते कहती गयी-‘मेरा भाई इसी रेलगाड़ी से आता है साहब… इसी रेलगाड़ी से आता है. मुझे अपने भाई को लेने जाना है.’ बाबू की हिम्मत जवाब दे गयी. वहीं बैठ गये. तभी वह आदमी आया और उनके दिये पैसे लौटाते हुए बोला-‘ये पैसे रख लो साहब. मुझसे बड़ी गलती हो गयी.’ बाबू उठे और घर को लौट गये. आज ऑफिस जाने की हिम्मत नहीं हुई.
ये सिलसिला ढेर दिन तक चलता रहा. लड़की प्रतिदिन स्टेशन जाती, सारी रेलगाड़ियों का इंतजार करती. इस उम्मीद में कि पता नहीं भाई किस गाड़ी से आ जाये. समय तेज गति से सरका. कई दशक बीत गये. कृतज्ञ शहर ने ठीक उसी चौराहे पर मेजर असलम की प्रतिमा स्थापित की. अब जब भी रक्षा बंधन का त्योहार आता है मां-बहन, बेटियां पहली राखी मेजर असलम की कलाई पर बांधती हैं. पूरा शहर उमड़ पड़ता है. लोग मेजर का नाम लेकर वतनपरस्ती की कसमें खाते हैं. लेकिन अब ये बातें बीते दिनों की होकर रह गयी हैं. अरसा गुज़र गये, फिर किसी ने रेशमा को उस चौराहे पर नहीं देखा.
-लेखक बिहार सरकार के शिक्षा विभाग में वरीय अधिकारी हैं.