आज ओझा जी के आते ही क्लास में हड़कंप मच गया. पिछली बेंच के बच्चे फुसफुसाए- अरे, ये तो मदनपुर वाले मास्टर साहब हैं. शायद बदली होकर आये हैं. हिंदी, हिसाब और संस्कृत में इनका जोड़ नहीं है. हाकिम-हुकाम में ऊंची पहचान है. इतिहास तो कंठे में बिराजता है. पानीपत व हल्दीघाटी की लड़ाई का बखान ऐसे करते हैं जैसे अभी-अभी जंगे मैदान से तलवार भांज कर लौटे हों! बगल गांव का बिगुआ कहता है- इनका पढ़ाया अपने दादा-परदादा का नाम भले भूल जाये, लेकिन जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर की सात पीढ़ी को नहीं भूलता. तभी बग़ल से बाबूराम बोला- लेकिन बड़ी कड़ियल मास्टर हैं. क्या मजाल कि कोई लड़का अपनी मर्ज़ी से छींक भी मारे. अब तो काली माई और पीरबाबा ही पार लगायें. उधर ओझा जी हाजिरी-बही मेज पर रखे, बोर्ड साफ करने वाला डस्टर मेज पर मारे और अपनी उपस्थिति का आभास कराये. पूरी क्लास में सन्नाटा छा गया. फिर शुरू हुआ… रौल नंबर एक एकबाल सिंह… एकबाल बिजली की गति से खड़ा हुआ और ‘जी श्रीमान’ बोला. यह पढ़ने में जहीन था और क्लास में अव्वल आता था. फिर रौल नंबर दो… देवीलाल. बंदा दोहराया- जी श्रीमान. फिर रौल नंबर तीन… तबारक मियां. वह उछल कर बोला- हाजिर जनाब. अब अनहोती महतो, बेजल बारी, गोकुल साव, इज्जत अली, रामगोविंद प्रसाद, रघुनंदन मिश्र, रौनक राय, फूलचंद ठाकुर, कमलधारी, मुनिया, तेंतरी, रामधनी, जुगेसर, जोधन और जय गोविंद के नाम पुकारे गये. सिलसिला चलता रहा.
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कुंए से पानी खींचने के लिए बर्तन से बंधी रस्सी के कुंआ किनारे रखे पत्थर से बार-बार रगड़ खाने से उस पर भी निशान बन जाते हैं. ठीक उसी प्रकार बार-बार अभ्यास करने से मंदबुद्धि व्यक्ति भी कई नई बातें सीख उनका जानकर बन जाता है
जब क्लास के सभी छात्र-छात्राओं के नाम पुकार लिये गये तो जीवट अपनी जगह खड़ा होकर बोला- गुरुजी, मेरा नाम तो पुकारा ही नहीं गया. ओझा जी पूछे- रौल नंबर? जी, चालीस- जीवट जोर देकर बोला. ओहो, तो तुम्हीं इस क्लास के सबसे मेधावी छात्र हो? आखिर आखिरी रौल नंबर ऐरे-गैरे को थोड़े मिलता है. लेकिन अब यह न चलेगा. तुम्हें मेहनत करनी होगी. हाड़-तोड़ मेहनत करनी होगी और क्लास में अपना स्थान बढ़िया बनाना होगा. जीवट गौर से गुरुजी की बातें सुनता रहा. फिर ओझा जी मुड़े और श्याम पट पर कुछ लिखने लगे. बच्चों ने गौर किया. गुरुजी ने लिखा था- करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान, रसरी आवत जात तें सील पर परत निसान. सभी नोट करने लगे. ओझा जी डपटे- अरे बेवकूफो, ये लिखने की चीज नहीं है, इसे तो मनन करना चाहिए. तुम लोग अब सातवीं में आ गये. वैसे यह छठी में ही पढायी जाती है. कोई अर्थ बतायेगा इसका? इकबाल, देवीदयाल और तबारक में आगे बताने की होड़ लगी रहती थी. तीनों साथ ही हाथ उठाये. लेकिन गुरुजी की नजर पिछली बेंच पर बैठे बच्चों पर गड़ गई. देखा, जीवट अब भी खड़ा था. बोले- जीवट, तुम अब तक खड़े हो? जी गुरुजी, आपने अनुमति नहीं दी, सो कैसे बैठता. बड़ी विनम्रता से जीवट बोला. तो अब बैठ जाओ. गुरुजी मुस्कराए. आज पहली बार किसी गुरु-मुख से अपना नाम सुना तो बहुत खुश हुआ. वैसे सब तो उसे बुड़बक ही बुलाते थे. गलती सिर्फ इतनी थी कि गाड़ी पिछले दो साल से इसी क्लास में अटक गयी थी. जैसे-तैसे प्राइमरी तो पास कर गया, लेकिन मिडिल में हालात मुश्किल हो गये.
आज कुछ खास पढ़ाई न हुई. ओझा जी पूरी घंटी बच्चों से औपचारिक बातें ही करते रहे. हां, कमाल की बात ये हुई कि बच्चों के नाम के साथ लदी भारी उपाधियां उतर गईं
गणित पल्ले न पड़ता था. अंग्रेजी हिमालय पहाड़-सी ऊंची दिखती थी. व्याकरण हमेशा बस बूते से बाहर ही रहा. अब अकेला समाज अध्ययन कितना साथ निभाए. यह भी बीच-बीच में नेहा-नाता तोड़ लेता था. उधर बाबूजी खुले शब्दों में एलान कर चुके थे- ‘बाबू, ठोक-बजा के बता देते हैं. अबकी गच्चा खाये तो सीधे हल का मुठ पकड़ा दूंगा. सो, होशियार हो जाओ. सगरी संगी-साथी हाई स्कूल हेल गये. अभागा अब तक जामुन की जड़ पकड़े बैठा है.’ जब ओझा जी ने दुबारा नाम पुकारा तो जीवट खुद में लौटा और बैठ गया. फिर गुरुजी ने समझाना शुरू किया- बात मार्के की है. जैसे कुंए से पानी खींचने के लिए बर्तन से बंधी रस्सी के कुंआ-किनारे रखे पत्थर से बार-बार रगड़ खाने से उस पर भी निशान बन जाते हैं. ठीक उसी प्रकार बार-बार अभ्यास करने से मंदबुद्धि व्यक्ति भी कई नई बातें सीख उनका जानकर बन जाता है. जो इसे जिंदगी में उतार लेते हैं, ओ कामयाब हो जाते हैं. उनका जीवन सुखमय हो जाता है. फिर गुरुजी ने पूरी क्लास को संबोधित करते हुए कहा- किसी को कुछ पूछना हो तो पूछे. आज जीवट को पहली बार हिम्मत हुई, सो खड़ा होकर बोला- गुरुजी, कोई रात-दिन मेहनत करता रहे, फिर भी उसे सफलता न मिले तो उसे क्या कहा जायेगा? ओझा जी मुस्कराए. शायद उन्हें पहले से इस प्रश्न का अंदेशा था. सो बोले- ऐसा हो ही नहीं सकता कि कोई हाड़-तोड़ मेहनत करे और उसे कामयाबी न मिले. हो सकता है कि वह सही दिशा में प्रयत्न न करता हो. तब उसे अपने प्रयत्न को सही दिशा देनी होगी. बात दिल में उतर गयी.
ऐसा हो ही नहीं सकता कि कोई हाड़-तोड़ मेहनत करे और उसे कामयाबी न मिले. हो सकता है कि वह सही दिशा में प्रयत्न न करता हो. तब उसे अपने प्रयत्न को सही दिशा देनी होगी
जीवट ढेर देर तक सोचता रहा. आज कुछ खास पढ़ाई न हुई. ओझा जी पूरी घंटी बच्चों से औपचारिक बातें ही करते रहे. हां, कमाल की बात ये हुई कि बच्चों के नाम के साथ लदी भारी उपाधियां उतर गयीं. आज पहली बार कक्षा में राय, सिंह, साव, महतो की जगह सिर्फ कुमार नजर आये. इज्जत अली का नाम नहीं बदला. अलबत्ता, तबारक मियां से हुसैन हो गये, तेंतर तृष्णा तो मुनिया मनीषा हो गयी. बच्चों को बड़ा मजा आया. दूसरी घंटी शफी सर की थी. ये साइंस के नए उस्ताद थे. विज्ञान की बारीकियों को अपनी शेरो-शायरी से हल करने में महारत हासिल थी. जीवट ने दो सवाल इनसे भी पूछे. तीसरी घंटी घनश्याम मास्टर की थी. ये गणित के नामी-गिरामी शिक्षक थे. चक्रवृद्धि के हिसाब तो कंठे पर विराजते. अंगुलियों पर सारा जोड़-घटाव कर लेते थे. आज पहली बार इनकी कक्षा में भी जीवट का कंठ खुला. चौथी घंटी में चतुर्वेदी जी आये. हिंदी व्याकरण पढ़ाये. अब ‘कर्ता के ने चिह्न’ का प्रयोग जीवट के पल्ले पड़ने लगा. मध्यांतर के बाद फिर ओझा जी आ गये. आज पहली बार किसी गुरु का आगमन बहुत सुहाया. कमलधारी को जर-बुखार आ गया था, सो मध्यांतर बाद छुट्टी लेकर घर चला गया. ओझा जी ने जीवट को उसकी जगह बैठा दिया. जीवट अब ब्लैक बोर्ड से सटे था. अगल-बगल तेज-तर्रार लड़के थे. ऐसा तो आज तक न हुआ था. उसे कुछ अजीब कैफियत मालूम हुई.
जीवट ने इतिहास का अर्थ बता दिया- ‘सर, इति मने बीती और हास मने कथा.’
ओझा जी ने पूछा- क्या पढ़ोगे? लड़के एक स्वर में चिल्लाए- सर, इतिहास. गुरुजी ने शुरू किया. ठीक है, जीवट तुम बताओ- इतिहास किसे कहते हैं? जीवट जितना जानता था. बता दिया- ‘सर, इति मने बीती और हास मने कथा.’ ओझा जी ठहाका लगाये और जीवट को शाबाशी देते बोले- इतिहास की व्यापक परिभाषा है प्यारे. किसी दिन विस्तार से बताऊंगा. आज अपने पाठ्यक्रम के अनुसार पढ़ो. तो शुरू करते हैं पानीपत की पहली लड़ाई से. और ओझा जी ने नाटकीय शैली में पढ़ाना शुरू किया- काबुल से चलकर आया हमलावर जहीरूद्दीन मुहम्मद बाबर और दिल्ली सल्तनत के सुल्तान इब्राहिम खां लोदी के बीच यह लड़ाई वर्तमान हरियाणा राज्य के पानीपत में इक्कीस अप्रैल पंद्रह सौ छब्बीस को लड़ी गयी. यह भारत के भविष्य की निर्णायक लड़ाई थी. बाबर के पास महज बारह हजार सैनिक थे. इब्राहिम लोदी की एक लाख की सेना से मुकाबला आसान नहीं था, लेकिन बाबर के रणनीतिक कौशल ने लोदी को परास्त कर दिया.
दोनों योद्धाओं के बीच चली पैंतराबाजी पैंतालीस मिनट तक कक्षा में चलती रही. बच्चों को लगा, जैसे जंगे-मैदान में खुद हाजिर-नाजिर हों. घंटी कब बज गयी, पता न चला
दोनों योद्धाओं के बीच चली पैंतराबाजी पैंतालीस मिनट तक कक्षा में चलती रही. बच्चों को लगा, जैसे जंगे-मैदान में खुद हाजिर-नाजिर हों. घंटी कब बज गयी, पता न चला. चलते-चलते गुरुजी सबक दे गये- कल इसी पाठ पर नाटक होगा. सभी संवाद याद करके आयेंगे. चेहरे खिल गये. अब सबको कल का इंतजार था. दो घंटी बाद छुट्टी हो गयी. आज पहली बार पढ़ाई प्यारी लगी थी. बंदा बस्ता बिस्तर पर रख संवाद याद करने लगा. कभी बाबर बन जाता, कभी लोदी में समा जाता. सिपाही से सेनापति बनने का सिलसिला चल ही रहा था कि बाबूजी ने आवाज लगायी. दौड़ कर गया. बाबूजी ने फरमान सुनाया- धान की रोपनी करनी है. कल तुम मेरे साथ खेत पर चलोगे. ठीक है? नहीं, मुझे स्कूल जाना है. जीवट साफ इन्कार कर गया. मदनपुर वाले ओझा जी कल नाटक खेलायेंगे, मुझे भी पार्ट लेना है. ओहो… तो अब यही बाकी रह गया था? क्या शफी सर कम थे कि ओझा जी भी आ गये. अब स्कूल में यही नाटक-नौटंकी होंगे. सुन रही हो जी, पत्नी को पुकारते बाबूजी व्यंग्यात्मक बाण छोड़े. जीवट की मां बेटे का पक्ष लेती बोली- छोड़िए न, बचवा सहिए कह रहा है. कमेसर को कह देती हूं, वह खेत पर चला जायेगा. मेरे साथ मुनेसरी की मां रहेगी. काम हो जायेगा. जीवट को स्कूल जाने दीजिए.
मां सब कुछ बर्दाश्त कर लेती है, लेकिन उसकी औलाद को कोई ओच्छी बात कहे तो उसे आड़े हाथ ले ही लेती है
बाबूजी तैश में आ गये- तुमने ही इसे सर चढ़ा रखा है. दो दिन स्कूल नहिए जायेगा तो क्या बन-बिगड़ जायेेगा. वैसे भी रोज-रोज जाकर तीसमार खां ने कौन-सा तीर मार लिया है? एक क्लास में दो साल से पड़ा है निकम्मा. मां सब कुछ बर्दाश्त कर लेती है, लेकिन उसकी औलाद को कोई ओच्छी बात कहे तो उसे आड़े हाथ ले ही लेती है. पति-पत्नी के बक-झक में बात बिगड़ गयी. कहा-सुनी खूब हुई. अंत अच्छा न हुआ. गुस्से में बाबूजी उस रात खाना न खाए. उधर जीवट गयी रात तक पढ़ता रहा. सोया तो सपने में ओझा जी आते रहे. कहने की जरूरत नहीं, दूसरे दिन नाटक खूब जमा. जीवट ने बाबर के सेनापति की भूमिका निभायी. बारी-बारी से सभी बच्चों को कुछ न कुछ करना पड़ा. उनका उत्साह देखकर ओझा जी ने घोषणा कर दी- अगले शनिवार की सांस्कृतिक सभा में पूरे स्कूल के सामने यह नाटक होगा. निर्देशन की कमान शफी सर ने संभाली. बात बच्चों के मुख से बड़ों तक गयी, फिर गांव-गांव चर्चा में आ गयी. कतिपय कारणों से स्कूल छोड़े बच्चे भी वापस आ गये. अब छोटे-बड़े बच्चों की भारी तादाद हो गयी.
चेतना-सत्र में सब साथ खड़े होते तो स्कूल का मैदान भर जाता. शफी सर सीटी बजाते और कूद-कूद कर कवायद कराते
चेतना-सत्र में सब साथ खड़े होते तो स्कूल का मैदान भर जाता. शफी सर सीटी बजाते और कूद-कूद कर कवायद कराते. फिर ओझा जी सभा को संबोधित करते. हेडमास्टर साहब देखते तो गद्गद हो जाते. भादो शुक्ल पक्ष में मनाया जाने वाला गणेश-चौथ का दिन नजदीक था. इस दिन बुद्धि के देवता गणपति की धूम-धाम से पूजा होती थी. सो स्कूल की साफ-सफाई चल रही थी. बच्चे लक्कड़ बनाकर रंग रहे थे. ये वाहिद त्योहार था, जिस दिन गुरुजी चौथ-चंदा गाते बच्चों की टोली के साथ गांव-गांव घूमते. इस तरह साल में एकबार अभिभावकों से सीधा संपर्क ही नहीं होता, बल्कि अपने छात्र के वातावरण की जानकारी भी मिल जाती. चौथ-चंदा के दिन स्कूल से बच्चों की चार टोली निकली. हर टोली में दो-दो गुरुजी थे. एक टोली में ओझा जी और शफी साहब साथ चले. जीवट माथे पर थाल में गणेशजी की मूर्ति लिये आगे-आगे चल रहा था. तृष्णा व मनीषा गा रही थीं. पीछे से बच्चे दोहरा रहे थे- भादो शुद्धि आज है चौथ-चंदा, गाते-बजाते लहराते हैं झंडा. बड़े प्रेम से बालक लक्कड़ बजाते, बड़े भाग्य से गुरुजी दुआरे पर आते…
गुरुजी को क्या खिलायें, क्या पिलायें… की होड़ लगी रहती. जैसे ही बच्चों की टोली दरवाजे पर पहुंचती, गुरुजी को ऊंचा आसन दिया जाता
खेतों में काम करते लोग काम छोड़कर सुनने लगते. राही-बटोही रुक जाते. शमां बंध जाता. गांव में घुसते ही बच्चों के पिता दरवाजे पर गुरुजी का इंतजार करते. माएं आंगन के इंतजाम में लग जातीं. गुरुजी को क्या खिलायें, क्या पिलायें… की होड़ लगी रहती. जैसे ही बच्चों की टोली दरवाजे पर पहुंचती, गुरुजी को ऊंचा आसन दिया जाता. बच्चे कतार में खड़े हो जाते और लक्कड़ बजा-बजा कर चौथ-चंदा गाने लगते. गुरुजी के पांव पखारे जाते. उधर आंगन में गणेशजी की पूजा होती. घर के छात्र-विशेष की आंख पर दूसरे बच्चे कपड़े की पट्टी बांध देते. फिर गाने लगते- बबुआ हो बबुआ.. माई से ढेबुआ मांग लावअ हो बबुआ.. जब तक मन-मुताबिक गुरुदक्षिणा नहीं मिल जाता, तब तक उस छात्र की आंख से पट्टी नहीं हटायी जाती. बाहर सभी बच्चों को कुछ न कुछ जरूर खिलाया जाता. गुरुजी की विदाई के समय भरपूर दक्षिणा दिया जाता. इसमें कुछ पैसे होते और ढेर सारा अनाज होता. फिर आगे के दरवाजे पर यही सिलसिला दोहराया जाता.
बच्चों का काफिला जब जीवट के दरवाजे पहुंचा तो उसकी मां ने अगवानी की. बाबूजी ऊपरी मन से शामिल हुए. वे मान कर चल रहे थे कि इस जामुन के जड़ से अब कोपलें न फूटेंगी. ओझा जी उनकी मनोदशा को ताड़ लिये, लेकिन खामोश रहे. उधर आंगन में मां ने दिल खोल कर दक्षिणा दिया. गुरुजी को पीली धोती और घर के लिए साड़ी सौंपी. बच्चों को पंगत में बैठाकर अल्पाहार भी कराया. गुरुजी जाने लगे तो हाथ जोड़ बोलीं- मास्टर साहब, आपका बड़ा नाम सुनी हूं. बचवा दिन-रात आपके नाम की माला जपता है. बताइए न, हमरा बाबू इस साल सात पास हो जायेगा न? इससे पहले कि ओझा जी कुछ कहते, उसके बाबूजी बोल पड़े- अरे, न पास करेगा तो हल चलायेगा न! का मास्टर साहब. शफी सर कुछ कहना चाह रहे थे, लेकिन ओझा जी इशारे से चुप करा दिये. और बिना कुछ कहे वहां से चल दिये. देखा, जीवट बच्चों की टोली में सबसे आगे जा रहा था. चार महीने बाद वार्षिक परीक्षा थी. बच्चे मन लगाकर पढ़ रहे थे. कमजोर बच्चों के लिए ओझा जी ने विशेष व्यवस्था की थी. इनमें जीवट भी था. धीरे-धीरे उसे बहुत कुछ समझ में आने लगा. गांठ खुलते ही गणित सहज हो गया. व्याकरण सुधरा तो भाषा पर भरोसा बढ़ गया. समाज अध्ययन तो साथ दे ही रहा था. अब विज्ञान की पहेलियां परेशान न करतीं. पढ़ाई में मजा आने लगा, लेकिन एक बड़ी कमी थी. जीवट की लिखावट बहुत खराब थी. ओझा जी ने हिदायत दे रखी थी कि सरकंडे की कलम से दो पेज रोज लिखा करे.
बाबूजी बोले- रे बुड़बक, सचमुच तू पिछली रोटी खाया है क्या रे? तुम्हरे संगी-साथी अंग्रेजी में कलम तोड़ रहे हैं और तुम दर्जा दो का लिखना लिख रहे हो. जो रे जामुन की जड़, सगरी ज़िंदगी बकलोल ही रहेगा
ऐसे ही एक दिन लिख रहा था कि बाबूजी की नजर पड़ी. देखते ही ताव में आ गये. बोले- रे बुड़बक, सचमुच तू पिछली रोटी खाया है क्या रे? तुम्हरे संगी-साथी अंग्रेजी में कलम तोड़ रहे हैं और तुम दर्जा दो का लिखना लिख रहे हो. जो रे जामुन की जड़, सगरी ज़िंदगी बकलोल ही रहेगा. जीवट कुछ न बोला. सर झुकाए लिखता रहा. साल का आखिरी महीना परीक्षाओं का होता है. जीवट जी लगा कर पढ़ रहा था. लिखावट भी कुछ हद तक सुधर गयी थी. उधर मां ने मन्नत मांग रखी थी कि बेटा पास हो जाये तो सत्यनारायण भगवान की कथा कराये. पंडित जी को जोड़ा पियरी धोती का नेवता भी दे आयी थी. खैर, सोमवार से परीक्षा शुरू हुई और शनिवार को समाप्त हो गयी. मां प्रतिदिन जीवट को दही-गुड़ खिला कर भेजती. शिक्षक कापियां जांचने लगे. बच्चों को छुट्टी दे दी गयी. अब अगले साल स्कूल खुलते ही रिजल्ट मिलेगा. जो पास होंगे, वे अगली कक्षाओं में जाएंगे. बाकी पिछली कक्षा में ही बैठेंगे. पन्द्रह दिन की छुट्टी बड़ी अखर रही थी. इस बीच बाबूजी खेतों पर ख़ूब काम कराए. जीवट जब ना-नुकुर करता तो डपट देते. कहते-जो कल करना है उसे आज ही शुरू कर दो. जीवट को करना ही पड़ता. माँ आड़े आती तो उसे भी डांट पड़ती. बाबूजी दिन ब दिन सख़्त होते गए. उनका रूखा व्यवहार मईया को तनिक न सुहाता. ख़ैर, ये दिन भी बीते.
नया साल आया. आज रिजल्ट निकलने वाला था. बच्चे नहा-धोकर नए कपड़े पहन, हाथों में फूल-माला लिए स्कूल पहुँचे. समय से ओझा जी कक्षा में आए और एक सरसरी निगाह बच्चों पर डाली. जीवट न आया था. पूछा तो बच्चों ने बताया कि अब वह अपने बाबूजी के साथ खेतों पर काम करने जाता है और अब आगे नहीं पढ़ेगा. ख़ैर, ओझा जी रिजल्ट बताना शुरू किए. रिजल्ट में भारी फेर-बदल हो गया था. एकबाल का प्रथम स्थान तो बरकरार रहा लेकिन दूसरे-तीसरे स्थान पर नए लड़के आ गए. जीवट गांव के बाहर गेंहू के खेत में सिंचाई कर रहा था. पानी के धार से जब मेड़ें टूटती तो दौड़-दौड़ कर कुदाल से मिट्टी डालता. माँ-बाबूजी भी वहीं थे, तभी बच्चों के साथ ओझा जी आ गए. अचानक जीवट की नज़र पड़ी. देखा तो ऐसे दौड़ा जैसे भूखा नन्हा बछड़ा अपनी माँ को देख दौड़ता है. जाकर ओझा जी से लिपट गया और कहने लगा- माँ के लाख मना करने पर भी बाबूजी नहीं मानते. कहते हैं, ई जामुन की जड़ क्या पढ़ेगा ? बड़ी काम कराते हैं. सर, इसीलिए स्कूल नहीं गया. मुझे अपने फेल होने का उतना मलाल नहीं जितना बाबूजी का जामुन की जड़ कहने से. फिर सुबुक-सुबुक कर रोने लगा. मईया बेटे को रोते देखी तो वह भी रोने लगी. गुरुजी की आँखें भी गीली हो गईं. जीवट को चुप कराते बोले- बेटा, कौन कहता है कि तुम जामुन की जड़ हो ? तुम्हारे पिताजी नहीं जानते. जड़ से ही पौधा पनपता है. जड़ ही विशाल वृक्ष को थामे रखती है. कभी-कभी तो सूखी जड़ों में भी कोपलें फुट जाती हैं. कुदरत का करिश्मा कौन जानता है ? रही बात तुम्हारी, तो मैं तेरा रिजल्ट लेकर आया हूँ. फिर उसके बाबूजी से मुख़ातिब हो बोले- लीजिए, आपका बेटा पास हो गया. और हाँ, सिर्फ पास ही नहीं हुआ है, क्लास में पांचवा स्थान भी लाया है. सुन कर बाबूजी का मुंह खुला तो खुला ही रह गया. बाबूजी बोल न सके. मईया ओझा जी का पैर पकड़ रोते हुए बोली- गुरुजी, आपने जीवट को नई जिंदगी दी है. सात जनम भी आपका एहसान न चुका पाएंगे. भगवान आपको हमरी उमर भी लगा दे. चेहरे पर मुस्कान लिए गुरुजी बाबूजी से बोले- आप शर्त हार गए और जीवट जीत गया. आपने कहा था कि इस बार फेल हुआ तो हल का मुठ पकड़ा देंगे लेकिन जीवट अपनी लगन व मेहनत से पास होकर आगे की राह आसान कर लिया. अब तो इसे पढ़ने देंगे न ? बाबूजी इस बार भी कुछ न बोल सके. हाँ, उनकी बरसती आँखों ने सब कुछ बता दिया. ओझा जी जाने लगे. बच्चों की लंबी कतार पीछे-पीछे चल रही थी. तभी माँ बोली- अब क्या कहते हैं ? बाबूजी भर्राए गले से बोले- जीवट को कह दो, पंडित जी को ख़बर कर दे. कल सत्यनारायण भगवान की कथा होगी और भारी भोज होगा. माँ जीवट को आवाज़ लगाई, लेकिन वह नहीं था. दोनों ने देखा- जीवट गुरुजी की उंगली पकड़े सबसे आगे चला जा रहा था.